व्यथा मन की

व्यथा मन की अब व्यर्थ हुआ जाता है 
तड़पता तन -मन सिमटता हुआ जाता है
कौन सुनेगा किसको मैं व्यथा बताउँगा
घुट-घुट कर न जाने क्यों मरा जाता है ।

उनके साथ का ही तो एक सहारा था
वो भी देखो न जाने क्यों छूटा जाता है
हाय कैसे प्रकट करूँ मन की वो व्यथा
भींगी आखों से न सुनाया अब जाता है ।

भला कोई मनुष्य ऐसे कर्म से कबतक 
इस संसार मे बोझ बनकर जिये जाता है
मौत को गले लगा लूँ हँसकर पर कहाँ है
कम्बख्त दूर दूर तलक नजर नही आता है ।



टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट